शनिवार, 11 सितंबर 2010

अमेरिका: दोस्त या दुश्मन?

लगता है बराक ओबामा आउटसोर्सिंग पर पूरी तरह से रोक लगाने पर आमादा हैं। उन्होंने घोषणा की है कि अमेरिका से बाहर नौकरी भेजने वाले अमेरिकी कंपनियों को वह टैक्स में किसी प्रकार की रियायत नहीं देंगे। मतलब वह अमेरिकी कंपनी पर इस बात का दबाव बना रहे हैं कि वह दूसरे देशों से अपना बोरिया-बिस्तर समेट ले, खासकर भारत से। एक अनुमान के मुताबिक भारत का आईटी सेक्टर अपने कुल निर्यात राजस्व का 60 प्रतिशत अमेरिका से प्राप्त करता है। जाहिर है कि ओबामा के इस निर्णय से सबसे ज्यादा झटका भारत को ही लगना है। इस समय भारत में कारोबार कर रही अमेरिकी आईटी कंपनियों में लगभग 30 लाख भारतीय आईटी प्रोफेशनल्स काम कर रहे हैं। यदि ओबामा की चेतावनी और धमकी का इन अमेरिकी कंपनियों पर असर हुआ तो भारत के इन आईटी पेशेवरों के सामने संकट खड़ा हो जाएगा। यह एक परिदृश्य है। इसका दूसरा परिदृश्य भारत सरकार के दब्बूपन से जुड़ा है। आखिर ओबामा के इन धमकियों के बाद भारत सरकार क्या कर रही है? क्या ओबामा की यह चेतावनी विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के नियमों और प्रावधानों के विरुद्ध नहीं है कि कोई देश अपनी कंपनियों को दूसरे देश में नौकरी ले जाने पर रोक लगाए? कहने की जरूरत नहीं कि अमेरिका और भारत डब्ल्यूटीओ के सदस्य हैं। अमेरिका की बात करें तो उसकी हमेशा से ही नीति रही है कि दुनिया के लिए बनने वाले किसी नियम से यदि उसे फायदा दिखता है तो वह अपना हित साधने के लिए उस नियम को अपना लेता है और यदि उसके हित में बाधा पहुंचती है तो उसे मानने से इंकार कर देता है। लेकिन हम हमेशा अमेरिका के इस स्वार्थी नीति को क्यों सहें। यदि अमेरिका का अपना हित है तो भारत का भी है। भारत को क्यों चुप रहना चाहिए? भारत को डब्ल्यूटीओ के सामने खुलकर यह घोषणा करनी चाहिए कि वह या तो ओबामा की मनमानी पर रोक लगाए या फिर भारत डब्ल्यूटीओ की अपनी सदस्यता छोड़ देगा। दरअसल, अमेरिका समझता है कि वह जब चाहे अपने हित के लिए भारत से दोस्ती गांठ सकता है और जब चाहे उसकी कान मरोड़ सकता है। उसका पूर्व का इतिहास इस बात का गवाह है। भोपाल गैस कांड को ही लें। उसने अपनी दादागिरी दिखाते हुए यूनियन कार्बाइड के मालिक और भारत का वांटेड वारेन एंडरसन को भारत के न्यायालय से छुड़ा ले गया और दादागिरी की हद तो देखिए, अभी जब यह मामला एक बार फिर उछला तो अमेरिका के किसी अधिकारी ने भारत के योजना आयोग उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया को ई-मेल किया कि भारत इस प्रकरण को भूल जाए अन्यथा आर्थिक संबंध प्रभावित होंगे। इसका क्या मतलब है? कोई भारत में आकर यहां के सैकड़ों लोगों की जान ले ले और हजारों को अपाहिज बना दे और हम चुप रहें? क्या अमेरिका ऐसा कर सकता है? केवल तीन हजार अपने नागरिकों की मौत के बाद अफगानिस्तान और पाकिस्तान में जिसने हजारों जिंदगियां निगल ली वह हमें पाठ पढ़ा रहा है कि छोटी-छोटी घटनाओं को भूल जाओ। एटमी डील को ही ले लीजिए। अभी-अभी भारतीय संसद में मनमोहन सिंह के न चाहते हुए विपक्ष के दबाव के बाद जब परमाणु क्षतिपूर्ति बिल में कंपनियों के लिए कठोर जवाबदारी तय किए गए तो अमेरिका बिल में बदलाव की रट लगाने लगा। क्योंकि परमाणु ंप्लांट लगाने और र्इंधन सप्लाई का काम यूएस कंपनियों के हाथों में जो होगा और जाहिर तौर पर यह अमेरिकी हित का सवाल था। हर किसी चीज की अति होती है और अमेरिका भी कुछ ऐसा ही कर रहा है। उसके पाप की कितनी गाथाएं सुनाऊं। एक तरफ वह भारत को दोस्त बताता है और भारत के पारंपरिक शत्रु पाकिस्तान को एक से एक खतरनाक हथियार सौंपता रहता है। भारत की मनमोहन सरकार को चाहिए को वह अमेरिका को खरी-खरी भाषा में समझा दे कि मुख में राम बगल में छुरी की नीति नहीं चलेगी। दोस्ती करना है तो खुल कर करो नहीं तो सामने मीठी-मीठी और पीठ पीछे गला काटने की नीति भारत अब बर्दाश्त करने वाला नहीं है। लेकिन मनमोहन सिंह ऐसा करेंगे इसमें संदेह है। पहला इसलिए कि वह डब्ल्यूटीओ के नंबर वन पैरोकार है और दूसरा अमेरिका के उनपर न जाने कौन से उपकार हैं।

1 टिप्पणी:

  1. जिस देश में बेरोजगारी अपने पैर पसार रही हो वह देश कैसे दूसरे देश के हितों के बारे में सोचेगा? हम हमेशा दूसरों से क्‍यों उम्‍मीद रखते हैं कि वे हमारे बारे में सोचे। हम क्‍यों नहीं अपने बारे में सोचते हैं? इस देश में एक प्रांत से दूसरे प्रांत को नौकरी देने पर बवाल मचता है तो अमेरिका कैसे दूसरे देश में अपना व्‍यापार जाने देगा? यहाँ का नागरिक यदि अमेरिका में जाकर बसता है और भारत में सस्‍ता व्‍यापार ढूंढता है तो उसे टेक्‍स देना ही पड़ेगा। ऐसा कैसे हो सकता है कि वह व्‍यक्ति ना तो अपनी शिक्षा का टेक्‍स भारत को दे और ना ही व्‍यापार का टेक्‍स अमेरिका को। आउट सोर्सिग में यदि एक भारतीय 1000 डॉलर अमेरिका से वसूलता है तो केवल भारत में 100 डॉलर ही खर्च करता है। इस पक्ष पर भी ध्‍यान दें। यदि भारत स्‍वयं में सुदृढ होगा तब ह‍में किसी के आगे फरियाद करने की आवश्‍यकता नहीं होगी अपितु दूसरे हमारे से फरियाद करेंगे।

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