शुक्रवार, 3 सितंबर 2010
क्या करें नीतीश?
बिहार के लक्खीसराय में नक्सलियों ने एक मुठभेड़ के दौरान 4 पुलिसकर्मियों को बंधक बना लिया है। उनकी मांग है कि जेल में बंद उनके 8 साथियों को सरकार रिहा करे। उधर सरकार भी अड़ी हुई है। नक्सलियों द्वारा अपने साथियों को छोड़ने के लिए दिए गए डेडलाइन तक सरकार द्वारा मांगे न माने जाने के बाद नक्सलियों ने एक पुलिसकर्मी की हत्या कर दी है। तीन पुलिसकर्मी अभी भी नक्सलियों के कब्जे में हैं। अब चर्चा इस बात पर हो रही है कि क्या सरकार को नक्सलियों की मांग मान लेना चाहिए या फिर अड़े रहकर भविष्य में नक्सलियों द्वारा इस तरह से ब्लैकमेल करने की मंशा समाप्त कर देना चाहिए। पुलिसकर्मियों के परिजन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के घर के बाहर धरने पर बैठे हैं और मांग कर रहे हैं कि सरकार नक्सलियों की मांग मान ले। ऐसे में सरकार भी दबाव में है कि वह क्या करे? एक तरफ यदि सरकार नक्सलवादियों की मांग नहीं मानती है तो उस पर अमानवीय होने का आरोप लगता है और यदि वह ऐसा नहीं करती है तो उस पर नक्सलियों की मनमानी के आगे झुकने का आरोप लगता है। याद कीजिए कांधार विमान अपहरण की घटना को। उस समय आतंकवादियों द्वारा अपहृत विमान में जो लोग सवार थे, वे तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के आवास के बाहर कोहराम मचाए हुए थे कि सरकार उनके परिजनों को किसी भी तरह रिहा कराए। सरकार ने परिजनों के विलाप के आगे झुकते हुए तीन खूंखार आतंकियों का ससम्मान कांधार पहुंचाया। उस समय किसी भी पार्टी ने इसका विरोध नहीं किया, लेकिन बाद में यह चुनावी मुद्दा बन गया। विपक्षी दलों ने अटल सरकार द्वारा आतंकियों को रिहा करने के निर्णय पर तरह-तरह के सवाल खड़े किए गए। यह भी कहा गया कि इसी कारण देश में आतंकवाद की घटना में भी बढ़ोतरी हो गई क्योंकि छोड़े गए आतंकवादियों में से एक मसूद अजहर ने बाद में जैश-ए-मोहम्मद नाम का आतंकी संगठन बनाकर भारत में कई घटनाओं को अंजाम दिया। चूंकि नीतीश भी उस सरकार उस सरकार में कैबिनेट मंत्री थे, इसलिए वह सावधान हैं। वह जानते हैं कि लालू यादव किसी भी चीज को मुद्दा बनाने में माहिर हैं और दोनों ही स्थिति में वह मुद्दा बनाने में चुकेंगे नहीं। लेकिन आम आदमी क्या सोचता है? क्या नीतीश को नक्सलियों की बात मान लेना चाहिए या फिर अड़े रहना चाहिए? जवाब आपको देना है।
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